डॉ पूनम शर्मा रचित कविता तजुर्बो के तहखाने

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तज़ुर्बों के तहखाने (शीर्षक)

ये झुर्रियां नहीं
मेरे तज़ुर्बों के तहखाने हैं,
जिनमें कैद हैं मेरी स्मृतियां,
जिनके कैद का फरमान
मैंने दिया है,
जब चाहती हूँ
देख लेती हूँ ताला खोल कर,
कहीं तहखानों में पड़े पड़े
जंग तो नहीं खा रहीं,
दीमकों ने तो नहीं कुतर दिया,
सीलन ने तो नष्ट नहीं कर दिया,
ये मेरी सहेलियां भी हैं
जिनसे मैं प्यार भी करती हूँ,
बतियाती भी हूँ,
लड़ती भी हूँ,
भरपूर शिकायतें करती हूँ,
बंद तहखानों में उतर कर,,,
चल रही हैं लगातार ये
गुस्ताखियां,
जो कुछ कम हो रही है तो वो
है मेरी उम्र,
दिन-ब-दिन
जिसे मैं गंवा रही हूँ,
तुम लौटा नहीं सकते इसे,
मेरी यादें और उम्र,
दोनों साथ चलती हैं ये,
शुन्य में गुम हो जाएगीं
कभी मेरे साथ,
लेकिन साथ नहीं छोड़ेंगी,
कभी हवा का झोंका,
कभी बारिश,
कभी बादल को फ़ाड़,
तूफान बन कर मचलने लगेंगी,
ये वही यादें हैं जो
तज़ुर्बों के तहखानों में कैद हैं,,,,

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