निष्ठा
छू ले कलम तो भाव है,
दिल चीर दे तो घाव है,।
चढ़े चौसर पर तो दांव है,
निविष्ट निष्ठा ही तो नाव है ।।
दुनिया में वो दम कहां,
जो निष्ठा को तोड़ सके।
अन्तर्मन के आत्मविजय को,
जरा भी कोई मरोड़ सके ।।
दुनिया ने इस निष्ठा को,
न जाने किस ओर लगाया।
जब भी जगती खुद में निष्ठा,
तब तब उत्तम दर्शन पाया ।।
जब भी लगती उत्तम निष्ठा,
कर्मठता गीत सुनाती है।
पनपाती है , कर्मपथिक को,
सोता वह भाग्य जगाती है।।
जब भी दर्शन होता उसका,
श्रद्धा से शिर झुकता है।
लग्नशीलता, त्याग, तपस्या,
अहंभाव भी मुड़ता है ।।
तपस्वियों की उन निष्ठा को,
मन से शीष नवाता हूं ।
जीता जग जिनकी निष्ठा से,
नित उनको शीष झुकाता हूं।।
नित उनको शीष झुकाता हूं।।
