डॉ पुनम शर्मा रचित कविता जिंदगी की चौसर पर

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जिन्दगी की चौसर पर (शीर्षक)

ज़िन्दगी की चौसर पर
पासे बिखरे हैं आकांक्षाओं के ,
समेटना चाहती हूं आकांक्षाएं ,
धागों में पिरोना चाहती हूं उन्हें ,
फिसल जाते हैं
उंगलियों के झरोखे से
कभी इधर कभी उधर ,
टहलते नजर आते हैं ,
ख्वाहिशें हैं ये मेरी,
मुंह मोड़ नहीं पाती हूं इनसे ,
निहारती हूं इन्हें ,
पुचकारती भी हूं ,
भाप लें मेरी मनोस्थिति शायद ,
लुढ़कते लुढ़कते
आ जाएं मेरे करीब,
मेरी मानसिक संतान हैं ये ,
सिर्फ प्रिय ही नहीं
आशीष के पात्र भी हैं,
मुस्कुराते हैं करीब आकर ,
मैं दौड़ पड़ती हूं
उन्हें गले लगाने को,
रंग मंच की सांध्य-बेला का ,
आगमन हो चुका है ,
समेटने की जल्दी,
इच्छाओं की भरमार,
वक्त की कमी,
तीव्रता बढ़ानी है ,
कार्यस्थल पर अपने ,
चलो दोनों हाथ उठाएं
आकाश की ओर ,
मदद करता सिर्फ वो ही है ,
मेरी शक्ति नहीं ,
वो तेरी शक्ति है ,,,,,
चलो आवाहन करते हैं
उसकी अदृश्य शक्ति का,,,,,

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